बालि द्वारा रावण की पराजय

बालि द्वारा रावण की पराजय 

एक दिन वह वाली द्वारा पालित किष्किन्धा पुरी में जाकर सुवर्ण माला धारी वाली को युद्ध के लिये ललकारने लगा।

उस समय युद्ध की इच्छा से आये हुए रावण से वाली के मन्त्री तार, तारा के पिता सुषेण तथा युवराज अंगद एवं सुग्रीव ने कहा।

'राक्षस राज! इस समय वाली तो बाहर गये हुए हैं। वे ही आपकी जोड़ के हो सकते हैं। दूसरा कौन वानर आपके सामने ठहर सकता है'।

'रावण! चारों समुद्रों से सन्ध्योपासन करके वाली अब आते ही होंगे। आप दो घड़ी ठहर जाइये ।

'राजन्! देखिये, ये जो शंख के समान उज्ज्वल हड्डियों के ढेर लग रहे हैं, ये वाली के साथ युद्ध की इच्छा से आये हुए आप जैसे वीरों के ही हैं। वानर राज वाली के तेज से ही इन सबका अन्त हुआ है ।

'राक्षस रावण! यदि आपने अमृत का रस पी लिया हो तो भी जब आप वाली टक्कर लेंगे, तब वही आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा'।

'विश्रवा कुमार! वाली सम्पूर्ण आश्चर्य के भण्डार हैं। आप इस समय इनका दर्शन करेंगे। केवल इसी मुहूर्त तक उनकी प्रतीक्षा के लिये ठहरिये; फिर तो आपके लिये जीवन दुर्लभ हो जायगा।

"अथवा यदि आपको मरने के लिये बहुत जल्दी लगी हो तो दक्षिण समुद्र के तट पर जाइये। यहाँ आपको पृथ्वी पर स्थित हुए अग्नि देव के समान वाली का दर्शन होगा'।

तब लोकों को रुलाने वाले रावण ने तार को भला-बुरा कहकर पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो दक्षिण समुद्र की ओर प्रस्थान किया।

यहाँ रावण ने सुवर्ण गिरि के समान ऊँचे वाली को संध्योपासना करते देखा। उनका मुख प्रभात काल के सूर्य की भाँति अरुण प्रभा से उद्भासित हो रहा था। हुए

उन्हें देखकर काजल के समान काला रावण पुष्पक से उतर पड़ा और वाली को पकड़ने के लिये जल्दी-जल्दी उनकी ओर बढ़ने लगा। उस समय वह अपने पैरों की आहट नहीं होने देता था।

दैव योग से वाली ने भी रावण को देख लिया; किन्तु वे उसके पाप पूर्ण अभिप्राय को जान कर भी घबराये नहीं।  

जैसे सिंह खरमेश को और गरुड़ सर्प को देखकर भी उसकी परवा नहीं करता, उसी प्रकार वाली ने पाप पूर्ण विचार रखने वाले रावण को देखकर भी चिन्ता नहीं की।

इच्छा उन्होंने यह कर लिया था कि जब पापात्मा रावण मुझे पकड़ने की से निकट आयेगा, तब मैं इसे काँख में दबाकर लटका लूंगा और इसे लिये दिये शेष तीन महासागरों के पार भी हो आऊंगा।

इसकी जांग, हाथ-पैर और वस्त्र खिसकते होगे। यह मेरो काँख में दबा होगा और उस दशा में लोग मेरे शत्रु को गरुड़ के पंजे में दबे हुए सर्प के समान लटकते देखेंगे।

ऐसा निश्चय करके वाली मौन ही रहे और वैदिक मन्त्रों का जप करते हुए गिरिराज सुमेरु की भाँति खड़े रहे।

 à¤‡à¤¸ प्रकार बल के अभिमान से भरे हुए वे वानर राज और राक्षस राज दोनों एक-दूसरे को पकड़ना चाहते थे। दोनों ही इसके लिये प्रयत्न शील थे और दोनों ही वह काम बनाने की घात में लगे थे। 

रावण के पैरों की हलकी-सी आहट से वाली यह समझ गये कि अब रावण हाथ बढ़ा कर मुझे पकड़ना चाहता है। फिर तो दूसरी ओर मुँह किये होने पर भी वाली ने उसे उसी तरह सहसा पकड़ लिया, जैसे गरुड़ सर्प को दबोच लेता है।

पकड़ने की इच्छा वाले उस राक्षस राज को वाली ने स्वयं ही पकड़ कर अपनी काँख में लटका लिया और बड़े वेग से वे आकाश में उछले ।

रावण अपने नखों से बारम्बार वाली को बकोटता और पीड़ा देता रहा, तो भी जैसे वायु बादलों को उड़ा ले जाती है, उसी प्रकार वाली रावण को बगल में दबाये लिये फिरते थे।

इस प्रकार रावण के हर लिये जाने पर उसके मन्त्री उसे वाली से छुड़ाने के लिये कोलाहल करते हुए उनके पीछे-पीछे दौड़ते रहे।

पीछे-पीछे राक्षस चलते थे और आगे-आगे वाली। इस अवस्था में वे आकाश मध्य भाग में पहुँच कर मेघ समूहों से अनुगत हुए आकाशवती अंशु माली सूर्य के समान शोभा पाते थे।

इसके आगे

 

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