पत्नीका परित्याग कदापि उचित नहीं bhag 2

पत्नीका परित्याग कदापि उचित नहीं bhag 2

राजाने मुनिको कृतज्ञतापूर्वक प्रणाम किया और

 

उनके बताये हुए वनमें जाकर ब्राह्मणपत्नीका पता लगाया। वह अबतक चरित्रसे गिरी नहीं थी। राक्षस उसे केवल इसीलिये ले आया था कि ब्राह्मण विद्वान् होनेके कारण सभी यज्ञोंमें ऋत्विज बनता था और जहाँ कहीं वह राक्षस जाता, उसे रक्षोघ्न मन्त्रोंद्वारा भगा दिया करता था, जिससे उसे परिवारसहित भूखों मरना पड़ता था। राक्षस इस बातको जानता था कि कोई भी पुरुष पत्नीके बिना यज्ञ-कर्म नहीं कर सकता; इसलिये ब्राह्मणके कर्ममें विघ्न

डालनेके लिये ही वह उसकी पत्नीको हर लाया था। राजाको प्रसन्न करनेके लिये वह ब्राह्मणपत्नीको पुनः अपने पतिके घर छोड़ आया और साथ ही उसके शरीरमें प्रवेश करके उसके दुष्ट स्वभावको भी खा गया, जिससे वह सर्वथा पतिके अनुकूल बन गयी। अब राजाको अपनी पत्नीके विषयमें चिन्ता हुई और वे उसका पता लगानेके लिये पुनः ऋषिके पास पहुँचे। ऋषिने राजाको उसका सारा वृत्तान्त बता दिया और पत्नी- त्यागका दोष वर्णन करते हुए पुनः उनसे कहा- 'राजन् ! मनुष्योंके लिये पत्नी धर्म एवं कामकी सिद्धिका कारण है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र- कोई भी क्यों न हो, पत्नीके न होनेपर वह कर्मानुष्ठानके योग्य नहीं रहता। जैसे पत्नीके लिये पतिका त्याग अनुचित है, उसी प्रकार पुरुषोंके लिये पत्नीका त्याग भी उचित नहीं।' राजाके पूछनेपर ऋषिने उन्हें यह भी बताया कि पाणिग्रहणके समय सूर्य, मंगल और शनिकी उनपर तथा शुक्र और गुरुकी उनकी पत्नीपर दृष्टि थी। उस मुहूर्तमें चन्द्रमा और बुध भी, जो परस्पर शत्रुभाव रखनेवाले हैं, उनकी पत्नीके अनुकूल थे और उनके प्रतिकूल । इसीलिये उन्हें अपनी रानीकी प्रतिकूलताका कष्ट भोगना पड़ा।

 

रानीको वापस लानेका प्रयत्न करनेके पूर्व राजा उस ऋत्विज ब्राह्मणके पास गये, जिसकी पत्नी उन्होंने राक्षससे वापस दिलवायी थी और उससे अपनी पत्नीको अनुकूल बनानेका उपाय पूछा। ब्राह्मणने राजासे मित्रविन्दा नामक यज्ञ करवाया। तब राजाने उसी राक्षसके द्वारा, जो उस ब्राह्मणकी पत्नीको हर ले गया था, अपनी पत्नीको भी बुलवा लिया। वह नागलोकमें नागराज कपोतके यहाँ सुरक्षित थी। नागराज उसे अपनी पत्नी बनाना चाहता था; किंतु उसकी पुत्रीने यह सोचकर कि वह उसकी माँकी सौत बनने जा रही है, उसे छिपाकर अपने पास रख लिया, जिससे उसका सतीत्व अक्षुण्ण बना रहा। मित्रविन्दा नामक यज्ञके प्रभावसे उसका स्वभाव भी बदल गया और वह अब अपने पतिके सर्वथा अनुकूल बन गयी । तदनन्तर उसके गर्भ एक महान् तेजस्वी पुत्रका जन्म हुआ, जो औत्तम नामसे विख्यात हुआ और जो तीसरे मन्वन्तरमें मनुके पदपर प्रतिष्ठित हुआ। ये औत्तम मनु इतने प्रभावशाली हुए कि मार्कण्डेयपुराणमें इनके सम्बन्धर्मे लिखा है—जो मनुष्य राजा उत्तमके उपाख्यान और औत्तमके जन्मकी कथा प्रतिदिन सुनता है, उसका कभी किसीसे द्वेष नहीं होता। यही नहीं, इस चरित्रको सुनने और पढ़नेवालेका कभी अपनी पत्नी, पुत्र अथवा बन्धुओंसे वियोग नहीं होता ।

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