सुरभि मुद्रा

सुरभि मुद्रा दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर फँसाकर बाएँ हाथ की तर्जनी को दाएँ हाथ की मध्यमा से, दाएँ हाथ की . तर्जनी को बाएँ हाथ की मध्यमा से इसी प्रकार बाएँ हाथ की अनामिका से दाएँ हाथ की कनिष्ठा, बाएँ हाथ की कनिष्ठा से दाएँ हाथ की अनामिका को मिलाएँ। इस प्रकार सुरभि मुद्रा बनती है। इसी को धेनु मुद्रा भी कहते हैं। इसके अभ्यास से वात-पित्त-कफ सम होते हैं। स्वास्थ लाभ के लिए इसका अभ्यास नितान्त लाभप्रद है। इस मुद्रा का सतत अभ्यास करने से समाधि की स्थिति तक पहुँचने में सहायता होती है। सुरभि मुद्रा में वायु और आकाश का मिलन होता है। पृथ्वी और जल का मिलन होता है। और अग्नितत्व शान्त रहता है। वायु और आकाश के मिलने से ब्रह्मांड का चक्र स्थिर रहता है। जल और पृथ्वी के मिलने से उर्वरा शक्ति बढ़ती है। सुरभि मुद्रा में यदि अग्नि तत्व को जल तत्व के मूल में लगा दिया जाय तो पित्त के रोग नष्ट होते हैं। यदि पृथ्वी तत्व के मूल से अग्नि को मिलाया जाय तो पेट के रोग नष्ट होते हैं। इस मुद्रा के निरन्तर अभ्यास से षटकमल का भेदन होता है। सुरभि मुद्रा में यदि अग्नि तत्व को अर्थात् अंगूठे को आकाश तत्व से सम्मिलित किया जाय तो सुरभि मुद्रा का निरन्तर अभ्यास करने से मनुष्य का शून्य बढ़ने लगता है और वह संसार के कोलाहल से दूर हो जाता है अर्थात् कानों से बहरा हो जाता है। शून्य बढ़ जाता है पर शरीर के अन्य तत्व अपना सन्तुलन न खोकर मानवी क्रिया को दैवी क्रिया की ओर खींचते जाते हैं। इसका निरन्तर ४५ मिनट रोज अभ्यास करते रहने से व्यक्ति विश्व के कोलाहल से दूर रहकर अनेक नाद सुनने लगता है और धीरे-धीरे नाद क्रमशः सुनाई देती है। अभ्यासी आगे चलता रहे तो उन्नति करता रहेगा। इस अवस्था में रक्त के चलने की आवाज वायु संचलन शब्द, रसों के पकने की आवाज सुनाई देती है। यह शब्द ९ प्रकार से सुनाई देंगे- १. घोष (वायु चलने की आवाज जैसा), २. कांस्य शब्द, ३. स्रग, ४. घंटा, ५. वीणा, ६. वंशी, ८. दुंदुभी (शंख ध्वनि), ९. मेघ गर्जना यह अन्तिम ध्वनि है इसे ओंकार शब्द कहते हैं। ओंकार ध्वनि सुनते-सुनते अभ्यासी तन्द्रा और निद्रा की स्थिति में पहुँच जाता है। इस स्थिति में आगे चलकर समाधिस्थ होकर आत्मा का परमात्मा में मिलन प्रारम्भ हो जाता है। और अन्ततः आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा में लीन हो जाती है। श्री राम ने लक्ष्मण को इसका उपदेश किया था तथा हनुमान जी ने जटायु के भ्राता सम्पाती को इस विद्या का उपदेश किया था। आप भी यदि इसकी साधना करें तो बिना गुरु के कदापि न करें।

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