तन्त्र शास्त्र में मद्य, शराबी का उपयोग

तन्त्र शास्त्र में मद्य, शराबी  à¤•à¤¾ उपयोग

मद्य स्थूल रूप में 'मद्य' का अर्थ 'सुरा' से है। तन्त्र' मद्य का प्रतिनिधि द्रव्य अष्ट गंध है। 'परशुराम कल्प सूत्र के अनुसार मद्य सेवन के सम्बन्ध में उसके औचित्य पर विचार कर लेना चाहिए। पंचमकार आनन्द के व्यंजक माने जाते हैं। अतः मद्य भी इसी का एक अंग है। तन्त्र के अनुसार मद्य में अघोलिखित विशेषताएं होनी चाहिए 1. वह किसी पेड़-पौधे या वनस्पति आदि से निर्मित हो। 2. गुड़ से बनी हो । 3. औषधियों या अन्नों को पीसकर बनायी गयी हो। 4. वृक्षों की छाल से बनी हो। 5. फूलों से बनी हो। (महुवा के फूल भी इसमें सम्मिलित हैं।) 6. मद्य ऐसी हो जिसे देखने और पीने से मन प्रसन्न हो जाए। 7. वह नशा न करके आनन्द विहल करने वाली हो । इस सम्बन्ध में ‘योगिनी तन्त्र' में वर्णों के अनुसार अलग-अलग मिश्रणों को मद्य के रूप में प्रयोग करने हेतु अनुमति दी गयी है ब्राह्मण के लिए गुड़ और अदरक के रस को सुरा कहा गया है। वैश्य के लिए- कांसे के पात्र में शहद को सुरा स्वरूप माना गया है क्षत्रिय के लिए- कांसे के पात्र में नारियल का जल सुरा स्वरूप है। "महानिर्वाण तन्त्र" के अनुसार गौड़ी (गुड़ के द्वारा), पैष्टी (पिष्टक के द्वारा) और माध्वी (शहद के द्वारा ) - यह तीन प्रकार की सुरा ही उत्तम है। यह सुरा ताड़, खजूर व अन्य वस्तुओं से बनती है। देश और द्रव्यों के भेद से यह अनेक प्रकार की होती है, जो देवताओं के लिए शोधित होकर उत्तम होती है। अर्थात् इसे शोधित करके देवार्चन किया जाता है। यह चाहे जिस रूप में और चाहे जिस व्यक्ति के द्वारा लायी गयी हो, शोधित होने पर यह सब सिद्धियों को देने वाली होती है। इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर (६/१३) कहा गया है कि “बिना शुद्धि के सुरापान करना विष खाने के समान होगा। शुद्धि के अभाव में साधक को रोगी और अल्पायु होकर शीघ्र ही को प्राप्त होना मृत्यु पड़ता है। " साधना काल में सुरा का सेवन अनुष्ठान की पूर्णता के लिए किया जाता है, उसे महा-औषधि के रूप में ग्रहण किया जाता है साथ ही ईष्ट को भी समर्पित किया जाता है। परन्तु उसका प्रयोग करने से पहले उसकी शुद्धि की जाती है। उसे आनन्द प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि चित्त की दृढ़ता के लिए प्रयोग किया जाता है। यदि सुरापान आनन्द के लिए किया जाए तो साधक को नरकगामी होना पड़ता है। एक प्रश्न यहां यह भी उत्पन्न हो सकता है कि मद्यपान करने वाले साधक को कर्तव्य या अकर्त्तव्य का ज्ञान तो रहता ही नहीं, फिर वह साधना क्या करेगा? इसके लिए शास्त्र निर्देश देते हैं कि जितनी सुरा दृष्टि और मन को विचलित न करे, उतने ही परिमाण में उसका पान करना चाहिए। इससे अधिक सुरापान को पशुपान कहा गया है। स्त्री-साधिकाओं के लिए मद्यपान का निषेध करते हुए उन्हें केवल उसकी गंध ही ग्रहण करने का निर्देश भी शास्त्रों में दिया गया है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मद्यपान करके, नशे में धुत होकर साधना में रत होना तन्त्र का उद्देश्य नहीं है। वास्तव में संसार में कोई भी द्रव्य अथवा पदार्थ केवल लाभप्रद अथवा हानिप्रद नहीं होता। उसका सही अथवा गलत प्रयोग या फिर उसकी मात्रा का प्रयोग ही परिणाम का कारक होता है। विष को यदि विष के रूप में ग्रहण किया जाए तो मृत्यु का कारक बन जाता है परन्तु यदि उसे शोधित करके ग्रहण किया जाए। तो वह जीवनदायी बन जाता है। योग्य गुरु के सानिध्य में, विशेष अवसरों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की सुराओं का पान कुण्डलिनी जागरण का कारण बन जाता है। जबकि उपयुक्त मार्गदर्शक के अभाव में स्फूर्ति और चेतना के स्थान पर साधक को हानि ही उठानी पड़ती है। कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए ही उसके मुख में सुरा प्रदान की जाती है। जो इस विद्या में निपुण हैं, वे जानते हैं कि किस चक्र के भेदन के लिए किस वस्तु सुरा का पान करना चाहिए। की परन्तु पशुभाव के साधक के लिए मद्य और मांस को सूचना भी वर्जित है। मैंने प्रथम अध्याय में स्पष्ट किया है कि वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार और दक्षिणाचार- ये चारों पशु भाव कहलाते हैं। इनमें उत्तीर्ण होने पर ही साधक वीर भाव में और फिर दिव्य भाव में प्रवेश करता है। पशु-भाव के स्तर वाले साधक के लिए पंचमकारों का प्रत्यक्ष स्थूल प्रयोग पूर्णतया वर्जित है, क्योंकि इस स्तर तक उसकी स्थिति परिपक्व नहीं हो पाती। ऐसे साधक को मांस-मदिरा के दर्शन भी नहीं करने चाहिए। कौलिक साधक की साधना में इनका प्रयोग दूसरे स्तर पर होता है। साधक इस स्तर पर पूर्ण परिपक्व हो जाता है अतः उसके लिए ये पदार्थ महाफलप्रद माने जाते हैं। अब हम मद्य के सूक्ष्म तत्व पर दृष्टिपात करते हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए भगवाà¤

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