अनाहत चक्र जागरण तंत्र द्वारा

अनाहत चक्र संरचना यह सुषुम्ना नाड़ी में हृदय के मूल से जुड़ा है। इसके कमल के चारों ओर बारह दल होते हैं। इसका रंग नारंगी आभा से युक्त लाल होता है। इसके केन्द्र में दो त्रिभुज के समान आकृतियां एक-दूसरे से इस प्रकार मिली होती हैं  इसे अनाहत चक्र इसीलिए कहा जाता है कि यहां ध्यान लगाने पर बिना सोये उत्पन्न ध्वनिनाद सुनाई पड़ता है। जो प्राणवायु के चक्र को क्रियाशील बनाता है। यह दया, प्रेम, ममता, भावुकता, इच्छाशक्ति को नियन्त्रित करने वाला चक्र है। यहां विष्णु का निवास स्थल है। à¤¯à¤¹ अपनी प्राणशक्ति एवं शारीरिक ऊर्जा का उपयोग करता है। à¤…नेक प्राचीनशास्त्रों के अनुसार यहां ईश्वर का निवास होता है। इस जीवात्मा का आधार अनाहत चक्र है; क्योंकि यहीं से वह ऊपर शीर्ष की ओर खड़ा व्याप्त है। श्रीचक्र में जिन दो त्रिभुजों को षड्कोणीय स्थिति में दर्शाया जाता है, उसमें ऊपर का त्रिकोण 'आत्मा' है और जिसका शीर्ष मस्तिष्क को ही आधार बनाकर ऊपर की ओर खड़ा है। जड़ पदार्थों में भी इसकी यही स्थिति है। अतः यदि इस जीवात्मा का निवास हृदय में माना जाता है, निवास स्थल केन्द्र ही माना जाता है,l देवी-देवता तन्त्र विवरण इस चक्र के कमल दल में ऐश्वर्य, भोग, आनन्द आदि की देवियों का निवास है। कमल के वृत्त में रुद्र हैं, जो हाथों में अमृत लिये हुए हैं। षड्कोण में काकिनी देवी का निवास है। इसके अन्दर के कोण में विकसित शिवलिंग है, जो शिव एवं शक्ति के संयोग से उत्पन्न होता है। अनेक आधुनिक विद्वानों ने इन चक्रों की यूरोपियन व्याख्या (कुछ यूरोपियन विद्वानों ने भारतीय पराविज्ञान के सम्बन्ध में शोध किया है) एवं तन्त्र क्रिया में इस साधना के लिए प्रयुक्त की जाने वाली सम्भोग शक्ति के प्रयोग को आधार बनाकर षड्कोणीय चक्रों में अधोगामी त्रिकोण को योनि और उर्ध्वगामी त्रिकोण को लिंग कहा है। यह भ्रम इसलिए भी उत्पन्न हुआ है कि 'षड्चक्र-निरुपण' आदि कुछ प्राचीन ग्रन्थों में इसकी व्याख्या इसी प्रकार की गयी है, किन्तु यह व्याख्या इन त्रिकोणरूपी शक्ति क्षेत्र की क्रिया आदि को व्यक्त करने के लिए दी गयी है। यह शक्ति एवं शिव का संयोग (सम्भोग) ही है और यहां समस्त क्रिया रति की ही भांति होती है। प्राचीन व्याख्याकारों ने इसी कारण लिंग एवं योनि की उपमा देते हुए इसे समझाया है। इसे स्थूल सम्भोग की योनि एवं लिंग प्रक्रिया समझना भारी भूल है। विभिन्न तन्त्र ग्रन्थों में कहा गया है कि जिस प्रकार योनि में लिंग समाया होता है, उसी प्रकार उर्ध्वगामी ऊर्जा त्रिभुज अधोगामी त्रिभुज में समाया हुआ है और जिस प्रकार धनुष से बाण छूटकर तीव्रगति से ऊपर जाता है, उसी प्रकार वीर्य (आत्मा की लहरें) ऊपर की ओर निरन्तर छूटता रहता है। इस लिंग त्रिकोण के शीर्ष पर अर्द्धचन्द्राकार छिद्र है, इसके केन्द्र में ज्योतिर्मय शिवलिंग है। यदि ध्यान देंगे, तो स्पष्ट हो जायेगा कि यह स्थूल सम्भोग क्रिया का वर्णन नहीं है। यदि अधोगामी त्रिभुज को योनि का प्रतीक मानते हैं, तो भारी समस्या खड़ी हो जायेगी। स्थूल सम्भोग में लिंग का शीर्ष योनि के अन्दर होता है। योनि से निकलकर ऊपर नहीं जाता। इस दशा में तो ऊपरी त्रिभुज के शीर्ष को भी नीचे होना चाहिए था और आधार को ऊपर। काकिनी देवी वह ऊर्जाशक्ति है, जो इस संयोग के कारण केन्द्र षट्कोण में विद्यमान है। यह वह विद्युतीय शक्ति है, जिसे प्राण ऊर्जा कहा जा सकता है। तन्त्र में इसके बारे में कहा गया है कि यह विद्युत की भांति आत्म से युक्त चकाचौंध उत्पन्न करने वाली त्रिनेत्री देवी है। इसके एक हाथ में कपाल है, दूसरे में पाश उसके दो हाथ वरदान देने की मुद्रा में हैं। यह देवी निरन्तर अमृत का पान करती है, इसलिए यह कोमल हृदया है। मन्त्र- ॐ सिद्ध मंत्र की जानकारी के लिए संपर्क कीजिएगा तन्त्र विवरण तन्त्र के विवरणों में कहा गया है कि कमलदल भोग की देवियों का निवास है। यह कथन योग के ही अर्थ को पुष्ट करता है। कमल के वृत्त में रुद्र की उपस्थिति बतायी गयी है। यह भी अग्निरूप ही है। यहां विध्वंस की क्रिया होती रहती है और यह रुद्र का ही गुण है। इस विध्वंस से अमृत निर्मित होता है, जिसका पान काकिनी करती है, जो षट्कोण में स्थित है। काकिनी के रूप विवरण में इस शक्ति रूप के गुणों की अभिव्यक्ति की गयी है। इस शक्तिरूप से केन्द्र में स्थित ज्योतिर्मय शिवलिंग प्रकाशवान है, जो वास्तविक भोग कर रहा है। सिद्धि लाभ योग से गूढ़ साधनाओं, विभिन्न ग्रह्य विद्याओं, गहन सूत्रों, उलझनयुक्त पेचीदी विद्या या स्थितियों को हल करने की मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। बुद्धि तत्त्व ज्ञान को समझने योग्य हो जाता है। इस चक्र की साधना से कर्मठता, आदर्श, कल्याण, प्रेम, दया, करुणा, उल्लास, उमंग आदि की वृद्धि होती है। वह सर्वदा आनन्दित रहता है। योग में कहा गया है कि संसार के भोगों का वास्तविक आनन्द प्राप्त करने वाला पराक्रमी भोक्ता वही है, जिसका यह चक्र जाग्रत है। यह ऐश्वर्य एवं भोगों को प्राप्त करने की ही शक्ति नहीं देता, अपितु यह उसे भोगने की भी शक्ति प्रदान करता है और उससे वास्तविक आनन्द उठाने की भी। लक्ष्मी (धन, वैभव, ऐश्वर्य, प्रभुता, वीरता, महत्ता आदि गुणों की देवी) इसकी दासी होती है। शरीर की सभी वृत्तियां साधक के नियन्त्रण में रहती हैं। यह चक्र मन का भी नियन्त्रणकर्ता है। फलतः यह मन को जिस ओर सक्रिय करता है, उसमें गहनता तक उतरता चला जाता है। इसी कारण यह वास्तविक भोक्ता है; क्योंकि यह प्रत्येक भोग को गहराई में जाकर भोगता है। रति के सम्बन्ध में भी इसकी यही स्थिति है। रति करते समय यह मन को गहनतम गहराई तक डुबा देता है और गिरने से पहले ही ऊपर उठा लेता है और बार बार यह कर सकता है। इस कारण यह दीर्घकाल तक रति का गहन सुख प्राप्त कर सकता है। इसीलिए इससे रति करने के लिए कामिनियां सर्वस्व निछावर कर सकती हैं। इस चक्र की साधना से योग या विभिन्न प्रकार की साधना को कर सकने, दृढ़संकल्प से किसी कर्म को करने, संघर्ष करने, सफलता प्राप्त करने की शक्ति आदि की असीम वृद्धि होती है। उपर्युक्त सभी गुण वैदिक दर्शन में विष्णु के माने गये हैं। इसीलिए इस चक्र की व्याख्या करते हुए कुछ ऋषियों ने कहा है कि यदि इस चक्र में कुण्डलिनी धारण किया गया, तो साधक महायोगी, तत्त्वज्ञानी, वास्तविक भोक्ता विष्णु रूप हो जाता है।

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