दसरथ कृत स्त्रोत से क्यों शीग्र प्रशन्न होते हैं शनि देव

राजा दशरथ एवं शनि

दसरथ कृत स्त्रोत से क्यों शीग्र प्रशन्न होते हैं शनि देव

 

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि यदि रोहिणी नक्षत्र का अतिक्रमण करता है तो 'रोहिणी शंकट भेदन' योग बनता है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता के अध्याय 24 में इस पर विस्तार से चर्चा की है। इसके फलस्वरूप पृथ्वी पर बारह वर्ष तक घोरतम दुष्काल पड़ता है। जब इक्ष्वाकुवंश उत्पन्न राजा दशरथ पृथ्वी पर राज्य कर रहे थे तो यह योग उपस्थित होने वाला था। ज्योतिषियों ने जब नीलम की कांति वाले शनिदेव को कृत्तिका नक्षत्र के अन्तिम चरण में देखा, तो भयभीत हो उठे।

राजा दशरथ जनता की इस चिन्ता से सोच में पड़ गए। राजा दशरथ सूर्यवंशी एवं परम तेजस्वी थे। उनका रथ नक्षत्र-मण्डल को भी पार करने की शक्ति रखता था। बहुत सोच-विचार करने के पश्चात् अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को लेकर, मन की गति से तेज चलने वाले रथ पर सवार होकर राजा दशरथ नक्षत्र मण्डल की ओर चल पड़े। वे सूर्यमण्डल में भी ऊपर पहुंच कर रोहिणी नक्षत्र के पृष्ठ भाग की ओर चले गए। वहां उन्होंने नीली व पराबैंगनी किरणों से आलौकित शनि को रोहिणी नक्षत्र की ओर बढ़ते हुए देखा। राजा दशरथ ने पहले शनि को विधिवत् नमस्कार कर स्तुति की फिर तुरन्त अपने दिव्य शस्त्रों का अनुसंधान शनि की ओर किया। शनि राजा दशरथ की अदम्य वीरता, साहस, पराक्रम, शिष्टाचार तथा जनता के प्रति अन्यतम कर्तव्यनिष्ठा को देखकर प्रभावित हुआ। शनिदेव ने राजा दशरथ को वर देना चाहा। दशरथ ने कहा कि सूर्यादि ग्रहों के होते हुए आप कभी शंकट भेदन न करें। तत्पश्चात् कृतार्थ महाराज दशरथ ने मनोहारी वचनों से शनि देव की पुनः स्तुति की। शनि ने प्रसन्न होकर एक और वरदान मांगने को कहा। दशरथ ने कहा आप अकारण किसी को कष्ट न दें। शनि दशरथ की लोककल्याण भावना को देखकर पुनः प्रसन्न हुए और कहा जो मनुष्य मेरी प्रतिमा की अर्चना कर, आप द्वारा निर्मित स्तोत्र का श्रद्धा व भक्तिपूर्वक पाठ करेगा। उसे मैं प्रतिकूल होते हुए, भी ताप नहीं दूंगा। उस जातक की कुण्डली में चतुर्थ, अष्टम, द्वादश व लग्नगत प्रतिकूल फलों का मैं त्याग कर दूंगा और प्रसन्न होकर मैं उस जातक की रक्षा करूंगा। तब से दशरथकृत शनि स्तोत्र शनिप्रदत्त पीड़ाओं की शान्ति हेतु अमोघ उपाय माना गया है।

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